Saturday, July 20, 2013

संस्कृत भाषा : भवतः स्वागतम् -- रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ (Part - I)


वैदिक संस्कृत

हिन्दुओं को प्राचीन वेद धर्मग्रन्थ वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में श्रौत जैसे सख़्त नियमित ध्वनियों वाले मंत्रोच्चारण की हज़ारों वर्षों पुरानी परम्परा के कारण वैदिक संस्कृत के शब्द और उच्चारण इस क्षेत्र में लिखाई आरम्भ होने से बहुत पहले से सुरक्षित हैं। वेदों के अध्ययन से देखा गया है कि वैदिक संस्कृत भी सैंकड़ों सालों के काल में बदलती गई।ऋग्वेद की वैदिक संस्कृत, जिसे ऋग्वैदिक संस्कृत कहा जाता है, सब से प्राचीन रूप है। पाणिनि के नियमिकरण के बाद की शास्त्रीय संस्कृत और वैदिक संस्कृत में काफ़ी अंतर है इसलिए वेदों को मूल रूप में पढ़ने के लिए संस्कृत ही सीखना पार्याप्त नहीं बल्कि वैदिक संस्कृत भी सीखनी पढ़ती है। अवस्ताई फ़ारसी सीखने वाले विद्वानों को भी वैदिक संस्कृत सीखनी पड़ती है क्योंकि अवस्तई ग्रन्थ कम बचे हैं और वैदिक सीखने से उस भाषा का भी अधिक विस्तृत बोध मिल जाता है।
वाङ्ग्मय 
कुछ सहस्र वर्षों के मानव अस्तित्व का सर्वेक्षण करें तो संस्कृत भाषा शिरोमणि के रुप में उभर आती है वैदिक काल से उद्गम होने वाली संस्कृत, उसके उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, कई सदीयों के पश्चात् आज तक नव पल्लवित होती रही है जब अन्य भाषाएँ केवल जन्म ले रही थी, संस्कृत सृजनशील मनीषी रचनाओं का माध्यम बन चूकी थी संस्कृत वाङ्ग्मय का केवल व्याप भी विस्मयकारक है ! अपौरुषेय वेदों ने, अन्य वेदकालीन रचनाओं एवं उत्तरकालीन संस्कृत रचनाओं के लिए मजबूत नींव डाली  

वैदिक साहित्य
संस्कृत रचनाएँ भाषा-भेद के कारण दो अलग काल में रची गयी दिखाई पडती हैवैदिक, अर्थात् जो वैदिक संस्कृत में रची गयी, और पारंपारिक, जो वेदोत्तर काल में रची गयी इन में से पारंपारिक या प्रचलित संस्कृत, करीब .पू. 400 तक राजकीय भाषा बन चूकी थी वैदिक वाङ्ग्मय पुरातन होने के कारण उसके काल के विषय में काफी अनिश्चिति पायी जाती है; यहाँ पर हमने कुछ सामान्य काल-मान्यता का उपयोग किया है  

प्राचीन वैदिक काल पद्यमय और सृजनशील समय था, किंतु उसके उत्तरार्ध में ब्राह्मणों ने अपनी इन शक्ति, होम-यज्ञादि विधि-निषेधों की ओर मोड दी जिसमें से गद्यमयब्राह्मणग्रंथों का निर्माण हुआ समय के साथ ये ब्राह्मण ग्रंथ भी मूल वेदों की भाँतिश्रुति” (अर्थात्अनुभूत किया हुआ”) कहलाये वैदिक वाङ्ग्मय इन प्रकृति-पूजन, विद्या-कला, विधि-निषेधों और कर्मकांड से लेकर ब्रह्मविद्या की ओर प्रगत हुआ, जोआरण्यककहलाया इन्हीं आरण्यकों का उत्तरार्ध गहन तत्त्वचिंतन में परिणत हुआ औरउपनिषदकहलाया  

इससे विपरीत, वेदोत्तर साहित्य मेंस्मृतिग्रंथों का सर्जन हुआ जो वेद-आधारित था परंतु, श्रुतिग्रंथों के मुकाबले अधिक जीवनस्पर्शी था ब्रह्मविद्या में शुद्ध और अनुभूति विषयक ज्ञान होने सेश्रुतिग्रंथ त्रिकालाबाधित कहलाये, पर ऋषियों ने कहे उन जीवनमूल्यों को चरितार्थ करने के लिये, कालानुसारस्मृतिग्रंथों की रचना हुई  

सूत्रोंका काल (.पू. 200 – 500) वैदिक-वाङ्ग्मय रचना में अंतिम माना जाता है उनका वर्ण्य विषय था वैदिक एवं स्मार्तिक (स्मृति अधिष्ठित) परंपराओं का संकलन इस समय तक अत्याधिक श्रुति और स्मृतिग्रंथों की रचना हो चूकी थी, और उनके गहन एवं पद्यमय वाङ्ग्मय का संक्षिपीकरण करना आवश्यक हो गया था, जो सूत्रों ने किया सूत्रदो प्रकार के हुए; श्रौत सूत्र जो श्रुति अधिष्ठित थे, और गृह्य सूत्र जो स्मृति अधिष्ठित थे गृह्य सूत्रों का वह भाग जो सामाजिक एवं कर्तव्याचरण विषयक था, उन्हेंधर्मसूत्रकहा गयाजो कि भारतीय कानून व्यवस्था का बीज रुप साहित्य माना जाता है  

सूत्रोंके तहद जो साहित्य सर्जित हुआ उन्हें छे वेदांगों में विभाजित किया गया;
1) शिक्षाध्वनि संदर्भित शास्त्र
2) छंदपद्य रचनाओं का संघटन शास्त्र
3) व्याकरणभाषा शास्त्र
4) निरुक्तशब्द व्युत्पत्ति शास्त्र
5) कल्पधार्मिक विधि .
6) ज्योतिषखगोल विद्या 

संस्कृत साहित्य 
वैदिक वाङ्ग्मय के इस पर्यंत साहित्य सर्जन में कुछ-एक हजार साल व्यतित हुए होंगे ! अपौरुषेय माने जानेवाले वेदों के बारे में ऐसा कहना ठीक होगा, पर ज्ञात मानव इतिहास की परिभाषा में ऐसा मान लेने में ज़ादा हानि भी नहीं यूँ भीअपौरुषत्वशुद्ध प्रज्ञावाचक संज्ञा है और कि कालवाचक!

इतने दीर्घ समय दौरान वैदिक भाषा में अप्रतिम वैविध्य, भेद या परिवर्तन हो जाना सहज था इसी लिए महामुनि श्री पाणिनी ने वैदिक व्याकरण भाषा नियमों को सुसंबद्ध किया इसका काल करीब .पू. 350 का माना जाता है, जो किसूत्रोंके सर्जन का काल भी था पाणिनीय व्याकरण सांप्रत या प्रचलित संस्कृत की जननी माना जाता है, और यहीं से मध्यकालीन संस्कृत साहित्य सर्जन की यात्रा आरंभ हुई दिखती है  

संस्कृत नाट्यशास्त्रों के मूल ऋग्वेद के उन मंत्रों में हैं जो संवादात्मक हैं इन नाट्यशास्त्रों की विशेषता है कि इनमें शोकान्तिकाएँ नहींवत् है इनमें आनेवाली कहानियाँ, प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है नाट्यों की सुरुआत प्रार्थना से होती है और उसके तुरंत बाद रंगमंच प्रस्थापक और किसी अभिनेता के बीच संवाद द्वारा, नाट्य के रचयिता और नाट्य विषय की जानकारी प्रस्तुत की जाती है कालिदास, भाष, हर्ष, भवभूति (दण्डी) इत्यादि संस्कृत के विद्वान नाट्यकार हो गये इनकी अनेक रचनाओं में से श्री कालिदास काशाकुंतलआज भी लोगों को स्मरण है  

संस्कृत विश्व के दो महान महाकाव्यों की भी जनेता है; श्री वाल्मीकि रचित रामायण, और श्री व्यासजी रचित महाभारत इन दो महाकाव्यों ने अनेकों वर्षों तक भारतीय जीवन के हर पहेलु को प्रभावित किया, और भारतीयों को उन्नत जीवन जीने के लिए प्रेरित किया इन महाकाव्यों ने शासन व्यवस्था, अर्थप्रणालि, समाज व्यवस्था, मानसशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षणप्रणालि इत्यादि विषयों का गहन परिशीलन दिया इन इतिहास ग्रंथों के अलावा, संस्कृत में अनेक पुराण ग्रंथों का भी सर्जन हुआ जिनमें देवी-देवताओं के विषय में कथाओं द्वारा सामान्य जनमानस को बोध कराने का प्रयत्न किया गया

संस्कृत साहित्य सर्जन को अधिक उत्तेजन मिला जब नाट्यकार श्री भरत (प्राचीन संगीतज्ञ.पू. 200) नेनाट्य शास्त्ररचा यह ग्रंथ नाट्य विश्लेषण का बाइबल माना जाता है प्रारम्भिक काल के नाट्यों में श्री भाष का योगदान महत्त्वपूर्ण था, पर कालिदास केशाकुंतलकी रचना होते ही वे विस्मृत होते चले शाकुंतल सदीयों तक नाट्यरचना का नमूना बना रहा शाकुंतल शृंगार और वीर रस वाचक था, तो श्री शुद्रक कामृच्छकटिकासामाजिक नाटक था उनके पश्चात् श्री भवभूति (. 700) हुए, जिनकेमालती-माधवऔरउत्तर रामचरितनाट्य प्रसिद्ध हुए  

मध्यकालीन युग में पंच महाकाव्यों की भी रचना हुई; 
1) श्री कालिदास केरघुवंशऔरकुमारसंभव
2) श्री भारवी काकिरातार्जुनीय” (. 550)
3) श्री माघ काशिशुपालवध”; और 
4) श्री हर्ष कानैषधिय चरित

इन पाँचों महाकाव्यों का प्रेरणास्रोत ग्रंथमहाभारतथा जो आज भी अनेक लेखकों का मार्गदर्शक है महाकाव्यों के अलावा प्रेम, नीतिमत्ता, अनासक्ति ऐसे अनेक विषयों पर व्यावहारु भाषा में लघुकाव्यों की रचना भी इस काल में हुई ऐसी पद्यरचना जिसेमुक्तककहा जाता है, उनके रचयिता श्री भर्तृहरि और श्री अमरुक हुए श्री भर्तृहरि रचित नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक आज भी प्रसिद्ध है  

दुर्भाग्य से संस्कृत की गद्यरचनाएँ इतनी प्रसिद्ध नहीं हुई, और वे कालप्रवाह में नष्ट हुई जो कुछ बची, उनमें से श्री सुबंधु की वासवदत्त”, श्री बाण कीकादंबरीऔरहर्षचरित”, और दंडी कीदशकुमारचरितप्रचलित हैं

नीतिपरकत्व, संस्कृत के सभी साहित्य प्रकार में विदित होता है, पर परीकथाओं और दंतकथाओं (. 400 – 1100) में वह अत्यधिक उभर आया है पंचतंत्रऔरहितोपदेशबुद्धिचातुर्य और नीतिमूल्य विषयक कथाओं के संग्रह हैं, जो पशु-पक्षीयों के चरित्रों, कहावतों, और सूक्तियों द्वारा व्यवहारचातुर्य समजाते हैं वैसे भिन्न दिखनेवाली अनेक उपकथाओं को, एक ही कथा या रचना के भीतर समाविष्ट कर लिया जाता है; मूल कथा का प्रधान चरित्र इतनी उप-कथाएँ बताते जाता है कि मूल रचना अनेक स्तरों में लिखी हुई प्रस्तुत होती है इस पद्धत का उपयोग पंचतंत्र में विशेष तौर पे किया गया है  

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