Friday, July 5, 2013

Dr. Shyama Prasad Mukherejee



भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉश्यामाप्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद, चिन्तक थे। भारतवर्ष में एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में याद किए जाते हैं। उनकी मिसाल दी जाती है, एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में। 

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल, पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि उन्होंने जो कुछ किया देश के लिए किया और इसी भारतभूमि के लिए अपना बलिदान तक दे दिया। ऐसे दिव्य पुरुष की गौरवमयी गाथा को जन-जन तक पहुंचाना हमारा परम सौभाग्य होगा

जीवन वृत्त
श्यामापसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई सन् 1901 को श्री अशुतोश मुखर्जी तथा योगमायादेवी के पुत्र के रूप में हुआ। उनके पितामह श्री गंगाप्रसाद मुखर्जी की एक सुयोग्य चिकित्सक के रूप में दूर-दूर तक ख्याति थी। वे बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों में आदर्श माने जाते थे। पूरा परिवार धर्मनिष्ठ तथा आचार-विचारों का दृढ़ता से पालन करने वाला था। परिवार में माँ काली की पूजा अर्चना विधि-विधान से की जाती थी।
पिता आशुतोष मुखर्जी बाल्यावस्था में ही असाधारण मेधावी थे। बंगाल के साथ-साथ देववाणी संस्कृत भाषा के प्रति उनके हृदय में अनूठी निष्ठा थी। संस्कृत के अध्ययन के बाद उन्होंने अनेक प्राचीन धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया। इससे उनके हृदय में सनातनधर्म  की परम्पराओं तथा मान्यताओं के प्रति श्रद्धा की भावना विकसित हुई।
श्री आशुतोष मुखर्जी की गणित की पढ़ाई में विशेष रुचि थी। वे क्षण भर में ज्यामितिक प्रश्न सुलझा देने की क्षमता रखते थे।  उनकी इस अनूठी प्रतिभा को देखकर लंदन मैथेमैटिकल सोसायटी की सदस्यता प्रदान की गयी। 29 मार्च सन् 1864 को जन्में आशु बाबू 35 वर्ष की आयु में सन् 1899 में बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए निर्वाचित हुए। सन् 1903 में वे दोबारा कलकत्ता कारपोरेशन के प्रतिनिधि के नाते बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए निर्वाचित हुए।

शिक्षा के क्षेत्र में उनकी रुचि अनूठी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें इंडियन यूनिवर्सिटीज कमीशन का सदस्य मनोनीत किया गया। लार्ड कर्जन कलकत्ता यूनिवर्सिटी की प्रगति में व्यक्तिगत रुचि लेते थे। वे श्री आशुतोष की असाधारण प्रतिभा से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति मनोनीत कर दिया। सन् 1904 में उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट का जज मनोनीत किया गया। कुछ ही समय में निष्पक्षता और न्यायप्रियता के लिए उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। न्यायाधीश तथा कुलपति जैसे सर्वोच्च पदों पर आसीन होने के बावजूद आशुतोष मुखर्जी अपने धार्मिक संस्कारों के पालन में अडिग रहे। उनका जीवन अत्यन्त सरल तथा सात्विक बना रहा। वह प्रतिदिन गंगा स्नान करने के बाद दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। मिलने आनेवाले व्यक्ति की सहायता व मार्गदर्शन करना अपना कर्त्तव्य समझते थे। 

एक बार रविवार के दिन वे किसी मुकदमे की फाइल देखने में इतने व्यस्त हो गये कि गंगा स्नान के लिए जाते-जाते देर हो गयी। गंगा स्नान के बाद जब वे कंधे पर गीली धोती व गमछा डालकर हाथ में जल से भरा लोटा लेकर लौट रहे थे कि रास्ते में एक महिला ने उन्हें कर्मकाण्डी पण्डित समझा और उनके पास जा पहुँची। वह हाथ जोड़कर बोली-‘महाराज ! मेरे पति का श्राद्ध होना है, लेकिन मुझ गरीब विधवा को कोई पंडित नहीं मिल रहा है। क्या मेरे पति बिना श्राद्ध के अतृप्त ही रह जाएँगे?’’
आशु बाबू ने उसकी करुणाभरी बात सुनी और बोले-‘‘चलो मैं श्राद्ध कराये देता हूँ।’’
वे वृद्धा की झौंपड़ी में पहुँचे पूरे विधि-विधान से श्राद्ध कर्म संपन्न कराया। जब वृद्धा भोजन करने तथा दक्षिणा ग्रहण करने का आग्रह करने लगी तो वे बोले-‘‘माँ जी, दक्षिणा व भोजन किसी गरीब को दे दीजिएगा। मैं पेशे से श्राद्ध कराने वाला पंडित नहीं हूँ।’’

उनकी अदालत का पेशकार वहीं पास ही रहता था। आशु बाबू जैसे ही वृद्धा की खोली से बाहर निकले पेशकार की नजर उन पर पड़ी। कुछ ही देर में उन्हें पता लग गया कि जज साहब वृद्धा के आग्रह पर उसके पति का श्राद्ध कर्म करवाकर निकले हैं, तो वह एक महान जज साहब की करुणा भावना व सरलता को देखकर हतप्रभ हो उठा। दूसरे दिन पेशकार ने जब उनके बँगले पर पहुँचकर उनके पुत्र श्यामाप्रसाद मुखर्जी को पहले दिन की घटना सुनाई तो परिवार के सभी लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।

एक बार श्री आशुतोष मुखर्जी न्यायालय में चल रहे किसी मामले की जाँच करने मधुपुर गये हुए थे। कार्य पूरा होने के बाद वे कलकत्ता पहुँचने के लिये मधुपुर रेलवे स्टेशन पर पहुँचे। रेल आधा घंटा विलंब से आनेवाली थी। उनके अर्दली ने प्रतीक्षालय में सामान रख दिया। इसी बीच मधुपुर का अंग्रेज एस.डी.एम. वहाँ पहुँचा तथा प्रतीक्षालय में आराम कुर्सी पर पसरकर चुरुट पीने लगा।

श्री मुखर्जी धोती-कुर्ती पहने प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। जब वे प्लेटफार्म से प्रतीक्षालय में आये, तब भी अंग्रेज पैर पसारे चुरुट पीता रहा। श्री मुखर्जी का अर्दली उन्हें पानी पीने के लिये गिलास देने लगा तो उसकी वर्दी देखकर वह समझ गया कि ये कोई बड़ी हस्ती हैं। उसने एकांत पाकर अर्दली से पूछा-‘‘आपके साहब कौन हैं।’’ जब उसे बताया गया कि ये जस्टिस मुखर्जी हैं, तो उसने चुरुट फेंका और खड़ा होकर उन्हें लंबा सलाम ठोंका।
बाद में उन्होंने कलकत्ता में अपने मित्र से इस घटना की चर्चा करते हुए हँसते हुए कहा-‘‘ये गोरे अफसर भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इन साहब से मुझे सलाम मेरे अर्दली की वर्दी ने कराया है।’’

श्री आशुतोष मुखर्जी ने रामायण, गीता तथा धर्म-शास्त्रों से भारतीयता पर दृढ़ बने रहने के सद्गुण ग्रहण किये थे। माता-पिता के प्रति वे अगाध श्रद्धा भावना रखते थे। प्रतिदिन घर से बाहर जाते समय माता-पिता के चरण स्पर्श करते थे। रात्रि के सोने से पूर्व उनकी सेवा करते थे। उनकी आज्ञा लिये बिना कोई कार्य कदापि नहीं करते थे। 

एक बार लार्ड कर्जन ने उनसे एडवर्ड सप्तम के अभिषेक उत्सव में भाग लेने के लिए इंग्लैंड जाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा-मैं अपनी माताजी से आज्ञा लेने के बाद ही इंग्लैंड जाने की स्वीकृति दे सकता हूँ।’’

माता जी नहीं चाहती थीं कि उनका पुत्र उन्हें छोड़कर उपने देश से बाहर जाए। उन्हें विनम्रता से इंकार कर दिया। लार्ड कर्जन ने कहा-‘‘अपनी माता जी को कह दो कि देश के वायसराय तथा गवर्नर जनरल का आदेश है कि वे इंग्लैंड जाए।’’ मुखर्जी ने विनम्रता से उत्तर दिया-‘‘मेरे लिए माँ के आदेश व इच्छा से बढ़ कर किसी दूसरे का आदेश कोई महत्व नहीं रखता।’’ लार्ड कर्जन उनके निर्भीकता भरे शब्द सुनकर हतप्रभ रह गये। कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज तथा विश्वविद्यालय के उप कुलपति जैसे पदों पर रहते हुए आशुतोष मुखर्जी अंदर ही अंदर उन दिनों देश में चल रही स्वाधीनता की लहर के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते थे।

लोकमान्य तिलक तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं द्वारा स्वदेशी अभियान चलाए जाने पर उन्होंने अपने मित्र से अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं को महत्त्व देने के पक्ष में विचार व्यक्त किये थे। वे स्वयं धोती-कुर्ती धारण करने में गर्व का अनुभव करते थे। उन्होंने अपने कमरे में विभिन्न विषयों की हजारों पुस्तकों का संकलन किया हुआ था। लोकमान्य तिलक द्वारा संपादित ‘केसरी’ तथा राषट्रभक्ति की भावना का प्रसार करने वाली अन्य पत्र-पत्रिकाओं का वे नियमित अध्ययन करते थे। उनके निजी पुस्तकालय में धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणा देने वाला विपुल साहित्य था। छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह तथा अन्य राष्ट्रवीरों के जीवन चरित्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। श्रीमद्भगवद्गीता को वे कर्म व भक्ति की प्रेरणा देने वाला सर्वोत्कृष्ट धर्म शास्त्र बताया करते थे।

उन दिनों कलकत्ता में यतीन्द्रनाथदास, देशबन्धु चितरंजनदास, रामानन्द चटर्जी आदि जहाँ राष्ट्रीय भावनाएँ पनपाने में लगे हुए थे वहीं कुछ बंगाली युवक क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे।

आध्यात्मिक विभूति भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार उन दिनों कलकत्ता में व्यापार करने के साथ-साथ गीता के प्रचार में संलग्न थे। कलकत्ता की साहित्य संवर्द्धिनी समिति की ओर से भाईजी तथा उनके युवा सहयोगियों ने गीता का प्रकाशन कराया था। गीता के मुख पृष्ठ पर भारत माता का ऐसा चित्र दिया गया था, जिसमें वह हाथ में खडग लिये हुए खड़ी थी। कलकत्ता के प्रशासन ने इस पुस्तक को राजद्रोह को बढ़ावा देनेवाली बताकर जब्त कर लिया था। श्री पोद्दार जी जब गीता के इस संस्करण की एक प्रति भेंट करने श्री आशुतोष मुखर्जी के निवास पर गये, तो उन्होंने इसके प्रकाशन के लिए बधाई दी।

श्री आशुतोष मुखर्जी ने यह अनुभव किया था कि अंग्रेज अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से युवा भारतियों को अपने साम्राज्य का हस्तक मात्र बनाये रखना चाहते हैं। उन्हें लार्ड मैकाले के शब्द याद थे कि अधिकांश अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय अपनी संस्कृति व सभ्यता त्याग कर स्वतः अंग्रेजों के पिछलग्गू बन जाएंगे। अतः उन्होंने भारतीयता पर आधारित शिक्षा तथा बंगला संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं को महत्त्व देनेवाले विद्यालयों की स्थापना की जरूरत को समझा। उन्होंने अपने अनेक धनाढ्य मित्रों को प्रेरणा देकर विद्यालयों की स्थापना कराई, जिससे बच्चे अपनी संस्कृति व परम्पराओं को अक्षुण रखते हुए पठन पाठन कर सकें।

कलकत्ता विश्विद्यालय के उप कुलपति के नाते श्री मुखर्जी ने सन् 1906 में बंग्ला भाषा की पढ़ाई शुरू कराई। उनके प्रयास से आगे चलकर भारतीय भाषाओं में एम.ए. की परीक्षा शुरू की गयी। आशुतोष बाबू न्यायाधीश तथा उपकुलपति जैसे पदों पर रहते हुए भी देश के स्वाधीनता आंदोलन के प्रति सहानुभूति बनाये रहे। अपने राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान के प्रति वे पग-पग पर जागरुक बने रहे।

श्यामाप्रसाद अपनी माता पिता को प्रतिदिन नियमित पूजा-पाठ करते देखते तो वे भी धार्मिक संस्कारों को ग्रहण करने लगे। वे पिताजी के साथ बैठकर उनकी बातें सुनते। माँ से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएँ सुनते-सुनते उन्हें अपने देश तथा संस्कृति की जानकारी होने लगी।
वे माता-पिता की तरह प्रतिदिन माँ काली की मूर्ति के समक्ष बैठकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। परिवार में धार्मिक उत्सव व त्यौहार मनाया जाता तो उसमें पूरी रुचि के साथ भाग लेते। गंगा तट पर वे मंदिरों में होने वाले सत्संग समारोहों में वे भी भाग लेने जाते।

आशुतोष मुखर्जी चाहते थे कि श्यामाप्रसाद को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाए। उन दिनों कलकत्ता में अंग्रेजी माध्यम के अनेक पब्लिक स्कूल थे। आशुतोष बाबू यह जानते थे कि इन स्कूलों में लार्ड मैकाले की योजनानुसार भारतीय बच्चों को भारतीयता के संस्कारों से काटकर उन्हें अंग्रेजों के संस्कार देने वाली शिक्षा दी जाती है। उन्होंने एक दिन मित्रों के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि बालकों तथा किशोरों को शिक्षा के साथ-साथ भारतीयता के संस्कार देने वाले विद्यालय की स्थापना कराई जानी चाहिए। उनके अनन्य भक्त विश्वेश्वर मित्र ने योजनानुसार ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। भवानीपुर में खोले गये इस शिक्षण संस्थान में बंग्ला तथा संस्कृत भाषा का भी अध्ययन कराया जाता था।

श्यामाप्रसाद को किसी अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलाने की बजाए ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ में प्रवेश दिलाया गया। आशुतोष बाबू की प्रेरणा से उनके अनेक मित्रों ने अपने पुत्रों को इस स्कूल में दाखिला दिलाया। वे स्वयं समय-समय पर स्कूल पहुँच कर वहाँ के शिक्षकों से पाठ्यक्रम के विषय में विचार-विमर्श किया करते थे। 

शिक्षा

डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी में 1921 में प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने1923 में एम.ए. और 1924 में बी.एल. किया। वे 1923 में ही सीनेट के सदस्य बन गये थे। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद कलकता उच्च न्यायालय में एडवोकेट के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। बाद में वे सन 1926 में 'लिंकन्स इन' में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड चले गए और 1927 में बैरिस्टर बन गए।

डॉ. मुखर्जी तैंतीस वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय में विश्व के सबसे कम उम्र के कुलपति बनाये गए थे। इस पद को उनके पिता भी सुशोभित कर चुके थे। 1938 तक डॉ. मुखर्जी इस पद को गौरवान्वित करते रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान अनेक रचनात्मक सुधार कार्य किए तथा 'कलकत्ता एशियाटिक सोसायटी' में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। वे 'इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस', बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और इंटर-यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।

डॉ मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धांतों के साथ प्रारंभ की। राजनीति में प्रवेश पूर्व देश सेवा के प्रति उनकी आसक्ति की झलक उनकी डायरी में 07 जनवरी, 1939 को उनके द्वारा लिखे गए निम्न उद्गारों से मिलती है :

हे प्रभु मुझे निष्ठा, साहस, शक्ति और मन की शांति दीजिए।
मुझे दूसरों की भला करने की हिम्मत और दृढ़ संकल्प दीजिए।
मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि मैं सुख में भी और दुख में
भी आपको याद करता रहूँ और आपके स्नेह में पलता रहूँ।
हे प्रभु मुझसे हुई गलतियों के लिए क्षमा करो और मुझे सद्प्ररेणा देते रहिए।

राजनीति में प्रवेश

कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे, किंतु उन्होंने अगले वर्ष इस पद से उस समय त्यागपत्र दे दिया, जब कांग्रेस ने विधान मंडल का बहिष्कार कर दिया। बाद में उन्होंने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए। वर्ष1937-1941 में 'कृषक प्रजा पार्टी' और मुस्लिम लीग का गठबन्धन सत्ता में आया। इस समय डॉ. मुखर्जी विरोधी पक्ष के नेता बन गए। वे फज़लुल हक़ के नेतृत्व में प्रगतिशील गठबन्धन मंत्रालय में वित्तमंत्री के रूप में शामिल हुए, लेकिन उन्होंने एक वर्ष से कम समय में ही इस पद से त्यागपत्र दे दिया। वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही 'हिन्दू महासभा' में शामिल हो गए। सन 1944 में वे इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे।
हिन्दू महासभा का नेतृत्व
राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखण्डता के प्रति आगाध श्रद्धा ने ही डॉ. मुखर्जी को राजनीति के समर में झोंक दिया। अंग्रेज़ों की 'फूट डालो व राज करो' की नीति ने 'मुस्लिम लीग' को स्थापित किया था। डॉ. मुखर्जी ने 'हिन्दू महासभा' का नेतृत्व ग्रहण कर इस नीति को ललकारा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके हिन्दू महासभा में शामिल होने का स्वागत किया, क्योंकि उनका मत था कि हिन्दू महासभा में मदन मोहन मालवीय जी के बाद किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन की जरूरत थी। कांग्रेस यदि उनकी सलाह को मानती तो हिन्दू महासभा कांग्रेस की ताकत बनती तथा मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की मनोकामना पूर्ण नहीं होती।

भारतीय जनसंघ की स्थापना

भारत विभाजन की योजना को जब स्वीकार कर लिया गया तब डॉ मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खंडित भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए, और उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके हिंदू राष्ट्रवादी चिंतन के साथ-साथ अन्य नेताओं से मतभेद बने रहे। फलत: श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया, और शीघ्र ही अन्य हिंदू राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनाई जो कि विरोधी पक्ष में सबसे बडा दल था। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ। जिसके संस्थापक अध्यक्ष, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी रहे।
1950 में नेहरू-लियाकत समझौते से नाराज होकर हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्यामाप्रशाद मुखर्जी केन्द्र सरकार से त्यागपत्र दे कर बाहर आ चुके थे। उनकी अध्यक्षता में जनसंघ का निर्माण किया गया,जिसमें संघ ने अपने कुछ प्रखर प्रचारकों को राजनिति में कार्य करने हेतु भेजा,जिनमें नानाजी देखमुख,भाई महावीर,पं.दीनदयाल उपाध्याय,सुन्दरसिंह भंण्डारी, अटलबिहारी वाजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी आदि प्रमुख थे,जिन्होने जनसंघ चलाया,जनता पार्टी में रहे और फिर भारतीय जनता पार्टी को आगे बढाया।
भारत विभाजन के विरोधी
जिस समय अंग्रेज़ अधिकारियों और कांग्रेस के बीच देश की स्वतंत्रता के प्रश्न पर वार्ताएँ चल रही थीं और मुस्लिम लीग देश के विभाजन की अपनी जिद पर अड़ी हुई थी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस विभाजन का बड़ा ही कड़ा विरोध किया। कुछ लोगों की मान्यता है कि आधे पंजाब और आधे बंगाल के भारत में बने रहने के पीछे डॉ. मुखर्जी के प्रयत्नों का ही सबसे बड़ा हाथ है।
उस समय जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री कहा जाता था। लेकिन डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जोरदार नारा भी दिया कि- एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। अगस्त, 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि "या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।"

निधन

जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई, 1953 में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया, क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट के समान एक परमिट लेना पडता था और डॉ. मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर चले गए थे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। वहाँ गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए आज़ाद भारत में यह पहला बलिदान था। इसका परिणाम यह हुआ कि शेख़ अब्दुल्ला हटा दिये गए और अलग संविधान, अलग प्रधान एवं अलग झण्डे का प्रावधान निरस्त हो गया। धारा 370 के बावजूद कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है। इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. मुखर्जी को ही दिया जाता है।

नेतृत्व क्षमता

डॉ. मुखर्जी को देश के प्रखर नेताओं में गिना जाता था। संसद में 'भारतीय जनसंघ' एक छोटा दल अवश्य था, किंतु उनकी नेतृत्व क्षमता में संसद में 'राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल' का गठन हुआ था, जिसमें गणतंत्र परिषद, अकाली दल, हिन्दू महासभा एवं अनेक निर्दलीय सांसद शामिल थे। जब संसद में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय जनसंघ को कुचलने की बात कही, तब डॉ. मुखर्जी ने कहा- "हम देश की राजनीति से इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचल देंगे।" डॉ. मुखर्जी की शहादत पर शोक व्यक्त करते हुए तत्कालीन लोक सभा के अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर ने कहा- "वे हमारे महान देशभक्तों में से एक थे और राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएँ भी उतनी ही महान थीं। जिस स्थिति में उनका निधन हुआ, वह स्थिति बड़ी ही दुःखदायी है। यही ईश्वर की इच्छा थी। इसमें कोई क्या कर सकता था? उनकी योग्यता, उनकी निष्पक्षता, अपने कार्यभार को कौशल्यपूर्ण निभाने की दक्षता, उनकी वाक्पटुता और सबसे अधिक उनकी देशभक्ति एवं अपने देशवासियों के प्रति उनके लगाव ने उन्हें हमारे सम्मान का पात्र बना दिया।"

विश्लेषण

डॉ. मुखर्जी भारत के लिए शहीद हुए और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया, जो राजनीति को एक नई दिशा प्रदान कर सकता था। डॉ मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से ही सब एक हैं, इसलिए धर्म के आधार पर किसी भी तरह के विभाजन के वे ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं है। हमारी भाषा और संस्कृति एक है। यही हमारी अमूल्य विरासत है। उनके इन विचारों और उनकी मंशाओं को अन्य राजनैतिक दलों के तात्कालिक नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। लेकिन इसके बावजूद लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया।

Must Read => Dr. Shyama Prasad Mukherejee's Speech at First All-lndia Session of Bharatiya Jana Sangh at Kanpur December 29th, 1952. 

“Equality of rights of Indian citizens, irrespective any consideration, forms the basis of the Constitution of India as indeed it must be a primary characteristic of any democratic country. Pakistan's recent proposals for basing her constitution, including minority rights, on Islamic law and principles of communal separatism flagrantly expose the reactionary character of that State.” India has been for centuries past the homeland of diverse people pursuing different faiths and religions. The need to preserve and respect the personal laws of such people specially in matters of religion and fundamental social obligations, is undoubted. In all matters concerning the rights and duties of citizenship as such, there must be complete equality for all. We must be able to carry all sections of the people with us by creating in their minds a healthy and progressive attitude of co-operation based on true equality of opportunity and mutual tolerance and understanding. Our party's door remains open to all who believe in our program and ideology irrespective of considerations of caste and religion. Our party believes that the future progress of India must be based on a natural synthesis between its full economic advance and the development of mind and character of the people in accordance with the highest traditions of Indian culture and civilisation. A nation that fails to take pride in its past achievements or take inspiration there-from, can never build up the present or plan for the future. Our party realises that there is no hope for India until and unless her people living in remote areas, mostly illiterate, speaking diverse languages, following differentiates of life, habits, customs and manners, are welded together into one harmonious pattern in which they can retain their healthy features without sacrificing the organic unity of our nation.”


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