Wednesday, February 3, 2010

हमारी संस्कृति, सभ्यता और अस्मिता

संस्कृति और सभ्यता इन दो शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी के पारिभाषिक एवं पर्यायवाची �कल्चर� और �सिवलीजेशन� के लिये किया जाता है। मानव जीवन के रहन-सहन के लिये जुटाये गये श्रेष्ठ उपकरण आदि सभ्यता के अन्तर्गत आते हैं। संस्कृति का अर्थ चिंतन तथा कलात्मक सर्जन की वे क्रियाएँ हैं जो जीवन को समृद्ध बनाती हैं। सरल शब्दों में मनुष्य द्वारा सृजित विभिन्न कलाएँ विशेषकर ललित कलायें साहित्य, संगीत, चित्र, शिल्प तथा वास्तु संस्कृति के उपादान हैं।
संस्कृति शब्द का उल्लेख यजुर्वेद में सर्वप्रथम किया गया है। सभ्यता अथवा �सिवलीजेशन� शब्द १७वीं शताब्दी से मिलता है। सभ्यता को संस्कृति की विकसित अवस्था का द्योतक भी माना जाता है। कुछ विद्वानों ने संस्कृति और सभ्यता को पर्यायवाची माना है। किन्तु दोनों में भेद है। सभ्यता एक सामाजिक व्यवस्था है जिसके द्वारा मानव की जीवन यात्रा सरल-सुखद होती है। संस्कृति चिन्तन और कलात्मक सृजन है जो जीवन को समृद्ध बनाती हैं। भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने इन दोनों शब्दों की अनेक व्याख्यायें की हैं, उन सबका यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है।
विश्व की संस्कृतियों म भारतवर्ष की संस्कृति प्राचीनतम है। सिन्धु घाटी में इसके अवशेष उपलब्ध हुए हैं। वैदिक काल के साहित्य से इसकी अक्षुण्ण परम्परा मिलती है। भारतीय संस्कृति अनोखी तथा अद्भुत है। इसकी जीवनी शक्ति की तुलना में विश्व की कोई भी सभ्यता तथा
संस्कृति नहीं ठहरती है। भारत की भौगोलिक स्थिति तथा प्राकृतिक समृद्धि विलक्षण है। इसका आध्यात्मिक चिंतन तथा बौद्धिक स्वरूप इसकी कसौटी है। वैदिक ऋषियों तथा मुनियों ने जीवन के उच्च आदर्शों से ऊपर उठकर मन की शक्ति तथा आत्मा के महत्त्व को स्थापित किया है।
पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति से भिन्न है। पाश्चात्य संस्कृति मुख्यतः प्राचीन यूनान तथा आधुनिक यूरोप तथा अमेरिका की संस्कृति है। भारतीय संस्कृति में मोक्ष आत्मा का चरम लक्ष्य है। इसके विपरीत यूरोपीय दर्शन में बाह्य अर्थात् भौतिक जगत् पर अधिक बल दिया गया है, अतः उनकी अभिरुचि विज्ञान में अधिक रही है। पाश्चात्य दार्शनिकों ने राजनीति तथा आचार शास्त्र पर अधिक चिन्तन किया, भारतीय दार्शनिक प्रायः इनकी ओर से उदासीन रहे।
भारतीय संस्कृति की थोडे शब्दों में परिभाषा देना कठिन है। भारत के दीर्घकालीन इतिहास में उसकी संस्कृति पर अनेक प्रभाव पडते रहे हैं, अतः इसमें न्यूनाधिक परिवर्तन भी होता रहा है। भारतवर्ष अनेक जातियों, धर्मों तथा संस्कृतियों का संगम स्थल बनता रहा है। अनेक संस्कृतियों को अपने में इसने समाहित किया है। किन्तु इस सबके बावजूद भारतीय संस्कृति की निजी कुछ विशेषताएँ हैं। समन्वयवाद की चेतना तथा सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता है। भारत अनेक देवी-देवताओं, पूजा तथा उपासना, अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों जैन, बौद्ध आदि धर्मों का उद्गम स्थल है। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, संन्यासाश्रम) हमारी संस्कृति की मौलिक विशेषताएँ हैं। आध्यात्मिकता इन सब में सर्वोपरि है। आधुनिक काल में भारत की युवा पीढी के सोच में परिवर्तन हुआ है। विज्ञान, चिकित्सा तथा कम्प्यूटर तथा तकनीकी क्षेत्रों में वे अपना प्रभुत्व रखते हैं।
श्रीमद् भागवत गीता अथवा भगवद्गीता भारतीय
संस्कृति का महानतम ग्रन्थ है। यह हिन्दुओं की सर्वश्रेष्ठ धर्म पुस्तक है। महाभारत के कथानक में गीता का सन्निवेश ऐसे स्थल पर हुआ है जिसमें समस्त ग्रन्थ का सार एवं दर्शन है। कौरव तथा पाण्डवों की सेनायें कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने सामने खडी थीं। अर्जुन अपने बन्धु बाँधवों को सामने देख कर विषादयुक्त हो संशय में पड विचलित हो जाता है तब सारथी श्रीकृष्ण उसकी शंकाओं का समाधान करते हुए गीता ज्ञान का उपदेश देते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस निष्काम कर्म की शिक्षा दी वह मानव समस्या का स्थाईयी समाधान प्रस्तुत करती है। कर्मवाद का सिद्धान्त प्रमुखता एवं शिद्दत से इस ग्रंथ में प्रतिपादित किया गया है। भारतीय संस्कृति योग की संस्कृति न होकर त्याग की
संस्कृति है। जो सर्वोत्तम है वह भारतीय संस्कृति है। इसमें संकीर्णता नहीं है, एक गरिमा है जो इसे शाश्वत बनाये हुए है। मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, आचार्य देवो भवः, अतिथि देवो भवः का सिद्धान्त भारतीय संस्कृति का सिद्धान्त है। वर्तमान समय में इसमें क्षरण हो रहा है।
मैकाले ने भारतवर्ष में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव मजबूत करने हेतु भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा शिक्षा पद्धति को तिरोहित करने तथा अंग्रेजी भाषा में दी जाने वाली शिक्षा प्रणाली का भारत में सूत्रपात किया। मैकाले अपने मन्तव्य में पर्याप्त सफल रहा, परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासक एक दीर्घकाल तक भारत में कायम रहा। मैकाले ने फरवरी, १८३५ में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में जो भाषण दिया था उसका कुछ अंश यहाँ दिया जा रहा है, �मैंने भारत में एक स्थान से दूसरे स्थान अर्थात् एक कोने से दूसरे कोने तक की यात्राएँ की हैं पर कोई भिखारी या चोर नहीं देखा। इस देश में नैतिक मूल्य एवं आदर्श चरित्र वाले देखे, अतः मैं सोचता हूँ कि हम इस देश को तब तक अधीन नहीं कर सकते जब तक इसके मेरुदण्ड को न तोड दें - जिसका आधार है आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक परम्परायें। इसके लिए हम इस देश की शिक्षा प्रणाली तथा संस्कृति को बदल डालें। यहाँ के लोग सोचने लगें कि विदेशी तथा अंग्रेजी जो कुछ है, अच्छा है, बेहतर है। तब हम भारत को अधीन राष्ट्र बना सकेंगे।� 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की निम्न पंक्तियों को हमने भुला दिया है -
निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को भूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल।।
कुछ दशकों से हमारे देश में पाश्चात्य संस्कृति, सभ्यता के प्रति हमारी युवा पीढी अधिक आकर्षित हो रही है। देश के अनेक प्रबुद्ध जन पाश्चात्य संस्कृति की वकालत करते हुए निज संस्कृति के प्रति उदासीन पाये जाते हैं। दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिकों आदि की भाषा हिन्दी होती है, पर उनके शीर्षक तथा पात्रों की नामावलियाँ आदि अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं, यह हमारी मानसिक गुलामी तथा अपनी भाषा के प्रति उदासीनता एवं उपेक्षा भाव का परिचायक है। यह हमारी भाषा, संस्कृति, सभ्यता तथा अस्मिता से जुडा हुआ महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। आज प्रत्येक भारतवासी अपने आप को टटोले तथा यह प्रश्न अपने आप से पूछे कि वह अपने देश, संस्कृति तथा अपनी अस्मिता के प्रति कितना समर्पित, निष्ठावान है ? क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है अनेक व्यक्तियों की इनके प्रति निष्ठा में स्खलन हो रहा है। 

No comments:

Post a Comment