अप्रैल
एवं मई २०१५ में भीषण भूकम्प की प्राकृतिक आपदा के पश्चात राहत कार्य के संचालन को
सही ढंग से संचालित करने हेतु नवीन संविधान के गठन का कार्य हुआ; जिसके फलस्वरूप १००
दिन से अधिक चले "मधेश आंदोलन" में अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव आये ; नेताओं के समूह से कुछ नायक खलनायक बने एवं कुछ महानुभाव वक्त की नज़ाकत एवं आंदोलन के रुख
के अनुसार स्वयं को मधेश मैत्री दिखाने के युक्ति में क्रियाशील बने रहे आंदोलन ने
सुबह के नाश्ते में गच्छेदार को निगला, दोपहर के खाने में पहाड़ी दल के मधेशी सांसद
को खाया एवं शाम के चाय-नास्ते में कांग्रेस को चीखना की तरह चबाया। अब लगता है कि
रात के खाने में नेपाल को ही ना खा जाएं।
बड़बोलों की बात करें; तो मधेश के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले अमरेश सिंह एवं बिमलेंद्र निधि
किस गुफा में चले गए, इसका आज तक पता नहीं चल पाया। वर्तमान परिस्थिति में "पहाड़ी
दल" के मधेशी सांसद 'मधेश' में घुसने के नवीन रास्तों की तलाश कर रहे है। इसी
परिप्रेक्ष्य में एमाले की बेचैनी ज्यादा परिलक्षित हो रही है, जिसने आंदोलन कमजोर
करने एवं मधेश में घुसपैठ हेतु संविधान पर चर्चा, भोज और चिया- पान का कार्यक्रम आयोजित
किया किन्तु अपने कार्यालय में तीसरी बार आगजनी से एमाले को मुँह की खानी पड़ी।
एक
अन्य दृष्टि से देखने पर; अभी तक नेपाल के शासन सत्ता में पहाडी मूल के नेता ही काबिज
रहें हैं । मधेशी मूल के कुछ नेताओं को मन्त्रालय ही मिला है, संपूर्ण मंत्रिमंडल की
जिम्मेदारी नहीं। तब प्रशन उठना स्वाभाविक है कि बडे, बडे निर्णय किसने किये? भारत
या अन्य देशों से विभिन्न संधि-समझौता किसने किया एवं बिजली उत्पादन हेतु बिना जांच
किये व्यक्तिगत लाभ सफल करने हेतु कंपनियों को लाइसेंस किसने दिया तथा देश की बडी,
बडी नदियों को किसने बेचा? सपष्ट है इन्हीं पहाडी नेताओं ने। फिर मधेशी या मधेश के
नेता ही क्यों गाली खाएं, क्यों इस देश की जनता के कोपभाजन और घृणावाद का शिकार बनें?
दूसरी
तरफ; "मधेश आंदोलन" को भारतीय दृष्टि से देखने वालों को लग रहा था कि 'बिहार
विधानसभा चुनाव' भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की हार से वे विजयी हो गए;
किन्तु छिद्रान्वेषण अथवा गूढ़-अध्ययन से यह स्पष्ट है कि "यह श्री नरेंद्र मोदी
की हार नहीं अपितु विजय है, जहाँ एक तरफ बीजेपी एवं दूसरी तरफ महागठबंधन, फिर भी भाजपा
का वोट प्रतिशत बढ़ा"। एक अन्य सन्दर्भ में; बिहार के चुनाव में "क्षेत्रीयता"
की विजय हुई है, जिससे यह पूर्णतः स्पष्ट होता है की "क्षेत्रीय अधिकार"
की 'मूल-मंत्र' जनमानस में गहरी पैठ बनाये हुए है। यही सन्दर्भ नेपाल में भी 'मधेश'
के क्षेत्रीय मांग/अधिकार की संस्तुति सुनिश्चित करता है। राजदूत रंजीत रे का पत्रकार
सम्मलेन करते हुए नाकाबंदी पर स्थिति स्पष्ट करना एवं भारत, बेलायत के संयुक्त वक्तव्य
ने आंदोलन विरोधियों के अरमानों पर पानी फेर दिया।
इस
आंदोलन के वैचारिक पक्ष पर दृष्टि डाली जाए तो; मोर्चा के नेता "प्रार्थना, संवाद
एवं आक्रोश" तीनों ही स्वरुप में कभी न कभी नज़र आ जाते हैं; तो यदा-कदा अपनी कमज़ोरियों
को भारत से सिर मढ़ देते हैं। विशेष परिदृश्य के अंतर्गत; मोर्चा अन्य मधेशी दल को अपने
साथ आने नहीं देते है, ना ही उनके साथ जाते है एवं यहां तक कि साजिश के तहत उनके झंडे-बैनर
को भी नहीं लगने देते। यदि आंदोलन के कमज़ोर पक्ष की बात की जाए तो 'यह मात्र नाका पर
ही सिमट गए है एवं सदर मुकाम पर अपनी पकड़ छोड़ चुके हैं। आंदोलन के प्रारंभिक दिनों
में जब ये सदर मुकाम पर थे;उस समय सरकारी कार्यालय बंद थे, वे अब खुलने लगे है। सन्दर्भ
यह है कि नाका यदि किसी प्रकार से से खुल भी जाता तो सदर मुकाम की बंदी आंदोलन को जीवित
रखती।
इन
सभी परिस्थितियों के मध्य; नेपाली जनमानस का उत्साह दिन-प्रतिदिन नवीन आयाम को प्राप्त कर रहा है। खुले मन से जनमानस का एक वर्ग
अलग देश की मांग कर रहा है। वही दूसरी तरफ, किसी भी कार्यक्रम को अहिंसक तरीके से सफल
करने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही है। एक वाकिये के बात की जाए तो; पर्सा के पोखरिया
में तमरा अभियान की विरोध सभा में इतने लोग आए, जितने विगत २० वर्षो में किसी भी सभा
में नहीं आए। यह प्रदर्शत करता है कि मधेश नवीन शक्ति की तलाश में है। यदि आंदोलन के
तालमेल पर नज़र डाली जाए तो यह प्रदर्शित होता है कि, हिन्दू पर्व के दिन मुस्लिम और
मुस्लिम पर्व के दिन हिन्दू स्वस्फूर्त तरीके से नाका पर पहुँचते हैं।
पूर्व
प्रधानमंत्री के ये विचार सरकार गिरने से पूर्व व्यक्त किये गए जो शायद ही वर्तमान
प्रधानमंत्री को पसंद आएं, अन्यथा वे एक सकारात्मक प्रयास के माध्यम से कोई न कोई हल निकालते : [ 'मधेशी
आंदोलन' संवेदनशील मुद्दा है; आंदोलन में जीवन
गँवाने वाले समस्त नेपाली जनता को मेरी श्रद्धांजलि। समस्याओं का समाधान 'शांतिपूर्ण
वार्ता' से ही संभव; हम प्रयास करेंगे समस्त वर्गों के हितों की रक्षा हो। 'राष्ट्रीय
एकता', 'भौगोलिक अखंडता' के साथ-साथ हमें 'सुशासन युक्त' एवं 'भ्रष्टाचार मुक्त' नेपाल
बनाना है - पूर्व प्रधानमंत्री श्री सुशील कोइराला ]
यदि
वर्तमान नेपाल सरकार के कर्मों पर नज़र डाली जाए तो ओली सरकार के समस्त दांव उलटे पड़ते
नज़र आ रहे हैं। 'मधेश आंदोलन' को 'भारतीय नाकाबंदी' के परिप्रेक्ष्य में दिखाने के
चक्कर में आंदोलन का अंतर्राष्ट्रीयकरण करते हुए इसकी उग्रता को और तेज़ करने का कार्य
(आग में घी डालने वाली कहावत सार्थक) कर दिया। वही दूसरी तरफ; चीन से आया तेल विशेष
रूप से 'मधेश' में वितरित नहीं किया गया। ओली सरकार स्वयं अपने ही जाल में फंस चुकी
है; जिस भारत की दिन-रात आलोचना करते नहीं थकते, वहीँ से चोरो की तरह तेल ला रहे हैं
एवं राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। ज्ञात हो कि, काठमांडू में बिकने वाली
"जलावन लकड़ी" भी मधेश की ही देन है। वस्तुतः यही कहना न्यायोचित अथवा स्वीकार्य
होगा को, अब ओली सरकार की मधेश विरोधी कथनों से आक्रोश ही नहीं अपितु एक नफ़रत की भावना
उत्पन्न हो जाती है। छठ के पश्चात आंदोलन एक नवीन स्वरुप को प्राप्त करेगा
नेपाली
मीडिया में "तेल, गैस एवं जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं के अभाव से परेशान नेपाल"
एवं "दिन-रात भारत द्वारा नेपाल को यह सब सामान उपलब्ध न कराने कि बात" ही
सुनाई देती है। वहीँ दूसरी तरफ भारत के खिलाफ अपना गुस्सा शान्त करने के लिए नेपाल;
चीन, इरान, इराक से तेल के लिए समझौता करने की गीदड़भभकी दिखता रहता है। मीडिया दिन-रात
पेट्रोल-पम्पों पर गाडियो की लम्बी लाइन एवं गैस सिलिंडर के लिए भटकते हुए लोगो को
दिखा रहा है। इसका मात्र एक ही उद्देश्य; भारत को बदनाम करते हुए, अंतर्राष्ट्रीय दबाव
मे 'पेट्रोलियम पद्दार्थ' भारत से लेने की रणनीति बनाने की यह एक चाल है ।
यदि
नेपालियो के अनुसार, भारत ने नेपाल पर अघोषित नाकाबन्दी की है तो नेपालियों ने मधेशियो
के उपर भी २४७ वर्षों से अघोषित नाकाबन्दी की है। संविधान में "समानता का अधिकार"
उल्लेखित कर, "सीमांकन को संवैधानिक बिंदु" बनाकर भी मधेशीयों को हर बार
अधिकार से वंचित करने का प्रयास हुआ है। बस एक ही काम शेष रह गया है, सभी कामकाज छोडकर
भारत के विरोध मे उर्जा खर्च करो और जितना जायदा हो सके विरोध करो
जैसा
की भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का सदैव से कहना रहा है, "संवाद
के माध्यम से बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान संभव है"। हम बस यही आशा कर सकते हैं
की नेपाल की ओली सरकार शीघ्रातिशीघ्र वार्ता के माध्यम से अथवा समुचित संविधान संशोधन
से कोई न कोई हल निकालकर; भीषण भूकंप की आपदा से परेशान नेपाल को एक नवीन आयाम प्रदान
करने में सफल होगी तथा प्रत्येक नेपाली अपने जीवन को सुखमय पायेगा
If Nepal had done what Indian army does at pak border since 1947, This Madesi issue would never have existed. Nepal belongs to ethnic Nepalis and hence the constitution favours them. If India wants Nepal support diplomatically then India should not indulge in Madesi affairs and help rebuild the civil war and earthquake affected poor Nepal in a big noticeable way. India should not let China poor Nepal succumb to China. Nepal expects better after a long Hindu brotherhood, not abuses in the UN. BJP should prove better than Congress in handling Nepal, don't forget it's a Hindu country, only second to India.
ReplyDeleteAs for you Pandey Ji, I suppose your article is biased towards India. In a way we can also say that "Madesi" actually Indians who came into Nepal in last 30 yrs from UP and Bihar, due to bad governance, At one time GorakhPur was compared to Chicago. This is the price Nepal had to pay for being tolerant Hindus. You can take whole of Nepal and call it India, that way you can get the constitution too. Why try to barge in now? supporting Madesis.
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