आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह अथर्ववेद का विस्तार है। यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन का ज्ञान’ - और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है।
इस शास्त्र के आदि आचार्य अशिवनीकुमार माने जाते हैं जिन्होनें दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सरि जोड़ा था । अश्विनीकुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की । इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया । काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं । उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वैद पढ़ा । अत्रि और भरद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं । चरक की संहिता भी प्रसिद्ध है । आयुर्वैद अथर्ववेद का उपांग माना जाता है । इसके आठ अंग हैं :
(१) शल्य (चीरफाड़)
(२) शालाक्य (सलाई)
(३) कायचिकित्सा (ज्वर, अतिसार आदि की चिकित्सा)
(४) भूतविद्या (झाड़-फूँक)
(५) कौमारभृत्य (बालचिकित्सा)
(६) अगदतंत्र (बिच्छू, साँप आदि के काटने की दवा)
(७) रसायन
(८) बाजीकरण ।
आयुर्वेद शरीर में बात, पित्त, कफ मानकर चलता है । इसी से उसका निदानखंड कुछ संकुचित सा हो गया है । आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि हारीत), सुश्रुत और चरक ।
सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया । उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया ।
मेरी प्रार्थना है आयुर्वेद को अधिकाधिक प्रयोग करें एवं इसके प्रयोग हेतु सभी को प्रोत्साहित करें ,,, !!
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