Wednesday, December 24, 2014

भारत रत्न : भारतीय ज्ञान-सम्पदा व सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना पं0 मदन मोहन मालवीय


महामना पं0 मदन मोहन मालवीय (25 दिसम्बर 1861 - 1946)

भारतीय ज्ञान-सम्पदा  सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना पंमदन मोहन मालवीय मध्य भारत के मालवा के निवासी पंप्रेमधर के पौत्र तथा पंविष्णु प्रसाद के प्रपौत्र थे। पंप्रेमधर जी संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान थे।

प्रयाग के भारती भवन पुस्तकालयमैकडोनेल यूनिवर्सिटी हिन्दू छात्रालय और मिण्टो पार्क के जन्मदाताबाढ़भूकम्पसांप्रदायिक दंगों  मार्शल ला से त्रस्त दु:खियों के आँसू पोंछने वाले मालवीयजी को ऋषिकुल हरिद्वारगोरक्षा और आयुर्वेद सम्मेलन तथा सेवा समितिब्वॉय स्काउट तथा अन्य कई संस्थाओं को स्थापित अथवा प्रोत्साहित करने का श्रेय प्राप्त हुआकिन्तु उनका अक्षय-र्कीति-स्तम्भ तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही है जिसमें उनकी विशाल बुद्धिसंकल्पदेशप्रेमक्रियाशक्ति तथा तप और त्याग साक्षात् मूर्तिमान हैं। ]



पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे। 
पंमदन मोहन मालवीय के पूर्वजों के तीर्थराज प्रयाग (इलाहाबादमें बस जाने का मन बनायाजबकि उनके परिवार के कुछ सदस्यों ने पड़ोसी शहर मीरजापुर को अपना निवास स्थान बनाया। पं0 प्रेमधर जी भागवत की कथा को बड़े सरस ढंग से वाचन  प्रवचन करते थे। 

मदन मोहन अपने पिता पंब्रजनाथ जी के छः पुत्र-पुत्रियांे में सबसे अधिक गुणीनिपुण एवं मेधावी रहे। उनका जन्म 25 दिसम्बर, 1861 0 (हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार पौष कृष्ण अष्टमीबुधवारसं0 1918 विक्रमको प्रयाग के लाल डिग्गी मुहल्ले (भारती भवनइलाहाबादमें हुआ था। उनकी माता श्रीमती मोना देवीअत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं निर्मल ममतामयी देवी रही। मदन मोहन की प्रतिभा में अनेक चमत्कारी गुण रहेजिनके कारण उन्होंने ऐसे सपने देखे जो भारत-निर्माण के साथ-साथ मानवता के लिए श्रेष्ठ आदर्श सिद्ध हुए। इन गुणों के कारण ही उन्हें महामना के नाम-रूप में जाना-पहचाना जाता है।

शिक्षा:-
महामना की प्रारंभिक शिक्षा प्रयाग के महाजनी पाठशाला में 5 वर्ष की आयु में आरम्भ हुई थी। 15 वर्ष के किशोर वय में ही उन्होंने काव्य रचना आरम्भ कर दी थी जिसे वे अपने उपनाम मकरन्द से पहचाने जाते रहे। पंमदन मोहन मालवीय जी ने अपने व्यवहार  चरित्र में हिन्दू संस्कारों को भली-भांति आत्मसात् किया था। इसी के फलस्वरूप वे जब भी प्रातःकाल पाठशाला को जाते तो प्रथमतः हनुमान-मन्दिर में जाकर प्रणामांजलि के साथ यह प्रार्थना अवश्य दुहराते थे:

मनोत्रवं मारूत तुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्
वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्री रामदूतं शिरसा नमामि 

श्री कृष्णजन्माष्टमी के महोत्सव को वे सच्च मन  हृदय से धूमधाम के साथ मनाने थे। मैट्रिक परीक्षा सन् 1864 में प्रयाग राजकीय हाईस्कूल से उत्तीर्ण करम्योर सेण्ट्रल कालेज में दाखिल हुए। मालवीय जी ने प्रयाग की धर्म ज्ञानोपदेश तथा विद्याधर्म प्रवर्द्धिनी पाठशालाओं में संस्कृत का अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् म्योर सेंट्रल कालेज से 1884 ई० में कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० की उपाधि ली।विद्यालय व कालेज दोनों जगहों पर उन्होंने अनेक सांस्कृतिक  सामाजिक आयोजनों में सहभागिता की। सन् 1880 में उन्होंने हिन्दू समाज की स्थापना की।

विवाह:-
उनका विवाह मीरजापुर के पंनन्दलाल जी की पुत्री कुन्दन देवी के साथ 16 वर्ष की आयु में हुआ था।

सामाजिक कार्य:-
पंमदन मोहन मालवीय जी कई संस्थाओं के संस्थापक तथा कई पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। इस रूप में वे हिन्दू आदर्शोंसनातन धर्म तथा संस्कारों के पालन द्वारा राष्ट्र-निर्माण की पहल की थी। इस दिशा में “प्रयाग हिन्दू सभा” की स्थापना कर समसामयिक समस्याओं के संबंध में विचार व्यक्त करते रहे। 

सन् 1884 में वे हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सदस्यसन् 1885 में इण्डियन यूनियन का सम्पादन, तथा दूसरे वर्ष मर्यादा पत्रिका भी प्रकाशित की। सन् 1887 ई0 में “भारत-धर्म महामण्डल” की स्थापना कर सनातन धर्म के प्रचार का कार्य किया। सन् 1889 ई0 में “हिन्दुस्तान” का सम्पादन, 1891 ई0 में “इण्डियन ओपीनियन” का सम्पादन कर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। इसके साथ ही सन् 1891 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते हुए अनेक महत्वपूर्ण  विशिष्ट मामलों में अपना लोहा मनवाया था। सन् 1913 में वकालत छोड़ दी और राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया ताकि राष्ट्र को स्वाधीन देख सकें।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी-1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि "उसे फारसी अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी।" 


यही नहीं वे आरम्भ से ही विद्यार्थियों के जीवन-शैली को सुधारने की दिशा में उनके रहन-सहन हेतु छात्रावास का निर्माण कराया। सन् 1889 में एक “पुस्तकालय” भी स्थापित किया। इलाहाबाद में म्युनिस्पैलिटी के सदस्य रहकर सन् 1916 तक सहयोग किया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में भी कार्य किया।

सन् 1907 में बसन्त पंचमी के शुभ अवसर पर एक साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका अभ्युदय नाम से आरम्भ कीसाथ ही अंग्रेजी पत्र लीडर के साथ भी जुड़े रहे।

पिता की मृत्यु के बाद पंडित जी देश-सेवा के कार्य को अधिक महत्व दिया। 1919 में कुम्भ-मेले के अवसर पर प्रयाग में प्रयाग सेवा समिति बनाई ताकि तीर्थयात्रियों की देखभाल हो सके। इसके बाद निरन्तर वे स्वार्थरहित कार्यो की ओर अग्रसर हुए तथा महाभारतमहाकाव्य के निम्नलिखित उदाहरण को अपना आदर्श जीवन बनाया -
 त्वहं कामये राज्यं  स्वर्गं  पुनर्भवम् 
कामये दुःख तप्तानाम् प्राणिनामार्तनाशनम् ।।

उनका यह आदर्श बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पहचान बनी।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण:-
पंमदन मोहन मालवीय जी के व्यक्तित्व पर आयरिश महिला डाएनीबेसेण्ट का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ाजो हिन्दुस्तान में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु दृढ़प्रतिज्ञ रहीं। वाराणसी नगर के कमच्छा नामक स्थान पर सेण्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना सन् 1889 में कीजो बाद में चलकर हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का केन्द्र बना। पंडित जी ने तत्कालीन बनारस के महाराज श्री प्रभुनारायण सिंह की सहायता से सन् 1904 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मन बनाया। सन् 1905 में बनारस शहर के टाउन हाल मैदान की आमसभा में श्री डी0एन0महाजन की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित कराया।

सन् 1911 में डाएनीबेसेण्ट की सहायता से एक प्रस्तावना को मंजूरी दिलाई जिसने 28 नवम्बर 1911 में एक सोसाइटी का स्वरूप लिया। इस सोसायटी का उद्देश्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करना था। 25 मार्च 1915 में सर हरकोर्ट बटलर ने इम्पिरीयल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में एक बिल लायाजो 1 अक्टूबर सन् 1915 को ऐक्ट के रूप में मंजूर कर लिया गया।

फरवरीसन् 1916 0 (माघ शुक्ल प्रतिपदासंवत् 1972) को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय”की नींव डाल दी गई। इस अवसर पर एक भव्य आयोजन हुआ। जिसमें देश  नगर के अधिकाधिक गणमान्य लोगमहाराजगण उपस्थित रहे।




युगदृष्टा एवं सृष्टा महामना मालवीय जी की पावन स्मृति में राष्ट्र की जागृति एवं समुन्नयन के लिए देवरिया जनपद के पूर्वांचल के ग्राम्य क्षेत्र में आज से करीब छः दशक पूर्व 'मदन मोहन मालवीय शिक्षा संस्थानकी स्थापना इस क्षेत्र के कई महान लोगों ने मिल-जुल कर की थीप्रकृति एवं सृष्टि में उत्क्रांति का जो प्रवाह हैउससे मानव का भविष्य अत्यंत उज्जवल दिखाई पड़ता है.

विशाल तथा भव्य भवनों एवं विश्वनाथ मन्दिर में भारतीय स्थापत्य कला के अलंकरण भी मालवीय जी के आदर्श के ही प्रतिफल हैं।


2014 दिसम्बर : भारत रत्न से सम्मानित ।।"